विश्वव्यापी मंदी ने जिन कई संस्थानों की चूलें बुरी तरह से हिला डाली हैं, अखबार जगत उनमें से एक है। और व्यापक मंदी की मार विकासशील देशों के छोटे-छोटे अखबारों पर ही नहीं, दि न्यूयॉर्क टाइम्स, बोस्टन ग्लोब तथा लॉस एंजेलीस टाइम्स जसे अमेरिकी अखबारों पर भी पड़ी है। दो बड़े अखबारों : शिकागो ट्रिब्यून तथा लॉस एंजेलीस टाइम्स छापने वाले संस्थान (दि ट्रिब्यून कं.) ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया है। खर्चा घटाने को न्यूजर्सी के सबसे बड़े अखबार ने अपने आधे स्टाफ की छॅंटनी कर डाली है, और बाल्टीमोर सन तथा बोस्टन ग्लोब ने विदेशों से अपने संवाद-ब्यूरो हटा लिए हैं। बाजार में न्यूयार्क टाइम्स की कीमत पहले की दशमांश रह गई है, और तमाम कटौतियों के बाद भी वह मेक्िसको के एक बड़े उद्योगपति से लोन मॉंगने को मजबूर हुआ है, ताकि रोाना का कामकाज चलता रहे। कहने को कहा जा सकता है कि इंटरनेट, सर्च इािंनों तथा ब्लॉग साइट्स के युग में मीडिया का कलेवर अब बदलेगा ही। और आज नहीं तो कल हिंदी पट्टी में भी लोगबाग नेट तथा केबल पर ही अखबार पढ़ेंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि आज भी इंटरनेट पर 85 प्रतिशत खबरों का स्रेत प्रिंट मीडिया ही है। वजह यह, कि सर्च इािंन गूगल हो अथवा याहू, दुनियाभर में अपने मॅंजे हुए संवाददाताओं की बड़ी फौा तैनात करने की दिशा में अभी किसी इंटरनेट स्रेत ने खर्चा नहीं किया है। और वह कर भी, तो रातोंरात अखबार के कुशल पत्रकारों जसी टीम वह खड़ी नहीं कर सकेंगे। बड़े अखबारों और वरिष्ठ संवाददाताओं से पाठक, नागरिक संगठन या सरकारें भले ही कई मुद्दों पर मतभेद रखें, इसमें शक नहीं कि युद्ध से लेकर बैंकिंग तक के घोटालों, रोमानिया तथा भारत से लेकर श्रीलंका तक में अलोकतांत्रिक घटनाओं तथा लोकतांत्रिक चुनावों और पर्यावरण तथा खाद्यसुरक्षा-स्थिति की बाबत जन-ान तक बारीक जानकारियाँ पहुँचा कर मानवहित में विश्वव्यापी जन-समर्थन जुटाने का जो काम बड़े अखबारों के संवाददाताओं ने दुनियाभर में किया है उसके बिना आज दुनिया में लोकतंत्र और मानवाधिकार काफी हद तक मिट चुके होते। कई लोगों का मानना है कि अखबारों के खासकर भारत के अंग्रेजी अखबारों के क्षय की बड़ी वजह पाठकों की गिरती तादाद है। लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं। आज भी अच्छे अखबारों के पाठकों की संख्या कोई कम नहीं, खासकर भारतीय भाषाओं में। लेकिन दिक्कत यह है, कि पाठकों को सबसे सस्ता अखबार देने की होड़ में अखबार दामी विज्ञापनों के बूते अपनी असली लागत से कहीं कम (लगभग 110वीं ) कीमत पर बेचे जाते रहे हैं। और इधर बाजार की मंदी के कारण वह विज्ञापनी प्राणवायु लगातार घटती जा रही है। अब अगर अखबार अपनी असली लागत पर बेचे जाने लगे, तो उसके पाठक निश्चय ही घटने लगेंगे। खबरिया चैनल तथा ब्लॉग एक हद तक खबरों या गॉसिप की भूख मिटा सकते हैं, लेकिन चैनलों की तुलना में अखबारों की कवरा बहुआयामी होती है। उसमें सिर्फ स्टोरी ही नहीं, उसका वरिष्ठ संवाददाताओं तथा संपादकों द्वारा बाकायदा विश्लेषण और उसकी अदृश्य पृष्ठभूमि से जुड़े तमाम तरह के ब्योर और जानकारियाँ भी मौजूद होते हैं। इंटरनेट की भाषायी पाठकों तक अभी वैसी पहुँच भी नहीं बनी है, जसी कि अंग्रेजी पाठकों की। लेकिन इन दिनों बदलाव की जो हवा नई तकनीकी के साथ बह रही है, उसने मोबाइल तथा केबल टी.वी. के जरिए हिन्दी पट्टी में सूचना क्षेत्र में अपनी भारी उपस्थिति तो दर्ज करा ही दी है। यह एक विडंबना ही है, कि जिस वक्त दुनिया के अनेक महत्वपूर्ण अखबारों के जनक और वरिष्ठ पत्रकार, इण्टरनेट और अभूतपूर्व आर्थिक मंदी की दोहरी चुनौतियों से जूझते हुए नई राहें खोज रहे हैं, वहीं हमार देश में (संभवत: पहली बार) लहलहा चले ज्यादातर भाषाई अखबारों को यह गलतफहमी हो गई है, कि लोकतंत्र का यह गोवर्धन जो है, उन्हीं की कानी उंगली पर टिका हुआ है। इसलिए वे कानून से भी ऊपर हैं। ऊपरी तौर से इस भ्रांति की कुछ वजहें हैं। क्योंकि हर जगह से हताश और निराश अनेक नागरिक आज स्वत:स्फूर्त ढंग से मीडिया की शरण में उमड़े चले जा रहे हैं। और यह भी सही है, कि हमार यहाँ अनेक बड़े घोटालों तथा अपराधों का उद्घाटन भी मीडिया ने ही किया है। लेकिन ईमान से देखें तो अपनी व्यापक प्रसार संख्या के बावजूद भाषायी पत्रकारिता का अपना योगदान इन दोनों ही क्षेत्रों में बेहद नगण्य है। दूसरी तरफ ऐसे तमाम उदाहरण आपको वहाँ मिल जाएंगे, जहाँ हिंदी पत्रकारों ने छोटे-बड़े शहरों में मीडिया में खबर देने या छिपाने की अपनी शक्ित के बूते एक माफियानुमा दबदबा बना लिया है। और पैसा या प्रभाववलय पाने को वे अपनी खबरों में पानी मिला रहे हैं। सरकारी नियुक्ितयों, तबादलों और प्रोन्नतियों में बिचौलिया बन कर गरीबों से पैसे भी वे कई जगह वसूल रहे हैं, और भ्रष्ट सत्तारूढ़ मुफ्त में नेताओं को ओबलाक्ष करके उनसे सस्ते या जमीनी और खदानी पट्टे हासिल कर रहे हैं, इसके भी कई चर्चे हैं। चूँकि एक मछली भी पूर तालाब को गंदा कर सकती है, हिन्दी में कई अच्छे पत्र और पत्रकारों की उपस्थिति के बावजूद हमार यहाँ आम जनता के बीच भाषायी पत्रकारों का नाम बार-बार अप्रिय विवादों में उछलने से अब उनकी औसत छवि बहुत उज्वल या आदरयोग्य नहीं है। इधर इंटरनेट पर कुछेक विवादास्पद पत्रकारों ने ब्लाग जगत की राह जा पकड़ी है, जहाँ वे जिहादियों की मुद्रा में रो कीचड़ उछालने वाली ढेरों गैरािम्मेदार और अपुष्ट खबरं छाप कर भाषायी पत्रकारिता की नकारात्मक छवि को और भी आगे बढ़ा रहे हैं। ऊँचे पद पर बैठे वे वरिष्ठ पत्रकार या नागरिक उनके प्रिय शिकार हैं, जिन पर हमला बोल कर वे अपने क्षुद्र अहं को तो तुष्ट करते ही हैं, दूसरी ओर पाठकों के आगे सीना ठोंक कर कहते हैं कि उन्होंने खोजी पत्रकार होने के नाते निडरता से बड़े-बड़ों पर हल्ला बोल दिया है। यहाँ जिन पर लगातार अनर्गल आक्षेप लगाए जा रहे हों, वे दुविधा से भर जाते हैं, कि वे इस इकतरफा स्थिति का क्या करं? क्या घटिया स्तर के आधारहीन तथ्यों पर लंबे प्रतिवाद जारी करना जरूरी या शोभनीय होगा? पर प्रतिकार न किया, तो शालीन मौन के और भी ऊलजलूल अर्थ निकाले तथा प्रचारित किए जाएंगे। अभी हाल में एक ब्लॉग ने एक महत्वपूर्ण अंग्रेजी खबरिया चैनल की वरिष्ठ महिलाकर्मी के बार में बेहद आपत्तिजनक भाषा और अपुष्ट तथ्यों के बूते एक मुहिम छेड़ दी थी। चैनल ने कानून की मदद से उसको अपनी उसी साइट पर अपनी गलती स्वीकार करने और माफी माँगने पर बाध्य किया। एक अच्छे स्थापित पेशेवर व्यक्ित के लिए अपनी साख पर झूठा बट्टा लगाया जाना, शारीरिक उत्पीड़न से कहीं अधिक यंत्रणादायक हो सकता है। कोई दुर्भावनावश उसकी लगातार यश-हत्या करता रहे, और पकड़े जाने पर अपनी क्षुद्रता या अभिव्यक्ित की स्वतंत्रता का हवाला देकर आत्मरक्षात्मक तेवर अख्तियार करे, तो क्या उसे हँस कर बरी कर दिया जाए, ताकि वह और भी साखदार लोगों की पगड़ी उछालता फिर? ऐसे क्षणों में हमारा पत्रकार जगत प्राय: अपने लिए किसी आचरण संहिता और अवमानना के दोषी सहकर्मियों पर सख्त कानूनी व्यवस्था का विरोध करता है। पर अगर प्रोफेशनल दुराचरण साबित होने पर एक डॉक्टर या चार्टर्ड अकाउण्टेंट नप सकता है, तो एक गैरािम्मेदार पत्रकार क्यों नहीं? हमारी राय में मीडिया की छवि बिगाड़ने वाली इस तरह की गैरािम्मेदार घटिया पत्रकारिता के खिलाफ ईमानदार और पेशे का आदर करने वाले पत्रकारों का भी आंदोलित होना आवश्यक बन गया है, क्योंकि इसके मूल में किसी पेशे की प्रताड़ना नहीं, पत्रकारिता को एक नाजुक वक्त में सही धंधई पटरी पर लाने की स्वस्थ इच्छा है।
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