पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने के लिए जहां पहले अनुभव व शिक्षा को महत्व दिया जाता था लेकिन व्यवसायिक दृष्टि से देखी जाने वाले इलेक्ट्रोनिक व प्रींट मीडिया में अनुभव व शिक्षा दूर होती जा रही है। विभिन्न संस्थानों व ग्रुप के लिए अब विजिनेंस देने वाली जमात सवोर्परि हो गई है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि पिछले कुछ साल से इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जिस तरह से नए चैनलों की बहार आ गई है उसने भी अनुभवी पत्रकारों का अकाल डाल दिया है। हर चैनल व अखबार अब व्यवसायिक पक्ष से भी मजबूत होना चाहता है इसके लिए पत्रकारों पर खबरों से ज्यादा विज्ञापनों का बोझ डाल दिया जाता है। इसके चलते भी अब ऐसे लोगों को तरजीह दी जाती है जो स्थानीय स्तर पर होने वाले खर्च के साथ कुछ कमाई करके दे सके। फिलहाल इस दौड़ में जहां पत्रकारिता के असल मायने गुम हो रहे हैं वही पीली पत्रकारिता को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। कुछ लोग कहते है कि पत्रकारिता बिक रही है पर सच यह है कि पत्रकारिता नहीं बिक रही बिल्क, बिक रहे हैं पत्रकार। ठीक उसी तरह जैसे कतिपय भ्रष्ट शासक-प्रशासक पहले और अब भी बिकते रहे, जयचंद-मीर जाफर देश को बेचने की कोशिश करते रहे हैं, गद्दारी करते रहे हैं। किन्तु देश अपनी जगह कायम रहा। नींव पर पड़ी चोटों से लहूलुहान तो यह होता रहा है किन्तु इसका महान अस्तित्व हमेशा कायम रहा है। पत्रकारिता में प्रविष्ट काले भेडिय़ों ने इसकी नींव पर कुठाराघात किया, चौराहे पर प्रबंधकों के साथ मिलकर कुछ पत्रकार अपनी बोलियां लगवाते रहे, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए हर किसी से सौदेबाजी करते रहे, हाथ में थामी कलमें बेचीं, अखबार के पन्ने बेचे, टेलीविजन पर झूठ को सच कहा तो सच को झूठ दिखाने की कोशिश की, किसी को महिमामंडित किया तो किसी के चेहरे पर कालिख पोती, इसे पेशा बनाया, धंधा बनाया, चाटुकारिता की नई परंपरा शुरू की है। बावजूद इसके, पत्रकारिता अपनी जगह कायम है, पत्रकार अवश्य बिकते रहे। पंजाब में खासकर मालवा जैसे पिछडे़ श्रेत्र में तो यह स्थित काफी चिंताजनक है। प्रशासन के साथ विभिन्न लोगों की आए दिन शिकायते आ रही है कि फला अखबार या फिर मीडिया का प्रतिनिधि उनसे खबर की एवज मे पैसे की मांग करता है। हालात यह है कि कुछ प्रशासकीय दफ्तरों जहां खासकर नियम कायदों को तोड़कर काम होता है ने कुछ पत्रकारों के लिए हफ्ता तय कर रखा है जो माह के पहले हफ्ते एक मुस्त राशि वहां से लेकर अपनी जेब में डाल लेते हैं। इसके बदले उक्त लोगों कोइन विभागों के मामले में आंख मूंदकर बैठने के लिए कहा जाता है। इसमें सिविल अस्पताल के कुछ डाक्टर, तहसील दफ्तर, जिला ट्रांसपोर्ट दफ्तर शामिल है। पहले तो लाटरी पर सट्टा लगाने वाले लोगों से भी हफ्ता वसूली होती थी लेकिन अब उक्त धंधा ही बंद हो गया है जिसके चलते हफ्ता वसूली करने वाले लोगों के पास भी मंदा आ गया है। फिलहाल इस तरह की स्थित के बारे में यहां जिक्र करने का मेरा मकसद किसी पत्रकार बंधु को टारगेट करना नहीं बलि्क वतर्मान में पैदा हो रहे हालात के बारे में जानकारी देना है। इस तरह की कारगुजारी से पूरा पत्रकार वर्ग बदनामी का दंश झेलता है। फिलहाल कुछ समय से जिस तरह कुछ लोगों के लिए पत्रकारिता पैसे ऐठने का जरिया बन रही है उसे रोकना जरूरी है। इसके लिए कम से कम किसी स्तर पर पहल तो करनी होगी तभी पंजाब की पत्रकारिता और उसके असूल जिंदा रह सकेंगे। मुझे याद है कि मेरे पास एक मेडिकल का काम करने वाला सख्श आया, उसने कहा कि वह पत्रकार बनना चाहता है, मैने पूछा क्यों? तो उसने बताया कि मेडिकल के काम में कई बार उलट फेर करना पड़ता है कई दवाईयां दो नंबर में लानी पड़ती है। अब गाडी़ में प्रेस लिख लेगें तो दो फायदे हो जाएंगे, एक कोई पुलिसवाला या ड्रग अफसर उसकी गाडी़ नहीं रोकेगा वही लोगों में पत्रकार नाम को दबका भी चलने लगेगा। उक्त महोदय ने मुझे पत्रकार बनाने व पहचान पत्र जारी करने की एवज में कुछ पैसे देने तक की आफर कर दी, अब अब सुगमता से समझ सकते हैं कि यहां पत्रकारिता किस मकसद के लिए हासिल की जाती है। फिलहाल मैं विभिन्न सामाचार पत्रों के संपादकों से एक गुजारिश जरूर करूगा कि पत्रकार जिसे बनाना है बनांए लेकिन समाज के ऐसे वर्ग से जरूर दूरी बनाए जो इस पेशे को समाज और कानून के अहित के लिए अपनाना चाहते हैं। अगर इसे नहीं रोका गया तो आने वाले समय में पत्रकारों की जमात को बदनामों की श्रेणी में देखा जाएगा।
हरिदत्त जोशी
हरिदत्त जोशी
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